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भारतीय सिनेमा का सुपरस्टार – जातिवाद और सामंतवाद का सहज उत्पाद
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भारतीय सिनेमा का सुपरस्टार – जातिवाद और सामंतवाद का सहज उत्पाद

royal family

 

संजय जोठे (Sanjay Jothe)

विश्व सिनेमा में धाक जमाने वाले फ्रेंच निर्देशक गोडार्ड ने जोर देकर कहा था कि हमें सिनेमा में सबकुछ शामिल कर देना चाहिए. यह कहते हुए उनका आग्रह था कि समाज में और जिन्दगी में जो भी जैसा भी है उसे वैसे ही रखना चाहिए. तत्कालीन फ्रेंच और हालीवूड सिनेमा के लिए भी यह एक रेडिकल विचार था. गोडार्ड हालाँकि सीधे सीधे भारत के सुभाष घई, सूरज बडजात्या और चोपड़ाओं के साथ नहीं रखे जा सकते लेकिन कल्पना में ही सही इन्हें एकसाथ रखकर बहस तो की ही जा सकती है. शायद गोडार्ड के साथ हम सत्यजीत रे या श्याम बेनेगल की कल्पना आसानी से कर सकते हैं. लेकिन भारतीय सिनेमा में जिस तरह से एक गैर जिम्मेदार और चलताऊ किस्म का सुपर स्टारडम फैला हुआ है उसका निदान करते हुए हमें सत्यजीत रे या श्याम बेनेगल को तस्वीर से हटाकर देखना होगा तभी हम समझ सकेंगे कि भारत में अभिनेता की बजाय स्टार क्यों पूजे जाते हैं.

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भारतीय समाज और सिनेमा की समस्या को जानने के लिए गोडार्ड को इस तरह देखना जरुरी है, मनुष्य और समाज की समस्याओं को उघाड़ने के लिए, उनके शरीर और मनोविज्ञान की सुरंगों फैले हुए अनजानी नाड़ियों के एक दुर्निवार और भयानक रूप से उलझे हुए ताने बने को दोपहर की धूप में सबके सामने ला पटकने की ये हिम्मत और साफगोई उनमे कूट कूट कर भरी थी. इसीलिये उनके सिनेमा ने विज्ञापन, साहित्य, व्यापार, कला और फेशन सहित न जाने किन किन आयामों को गहराई से प्रभावित किया. द्वितीय विश्व युद्ध से उबर रहे एक समाज में सार्त्र और मार्क्स की क्रांतिकारी प्रस्तावनाओं के नजरिये से समाज और सिनेमा के संबंधों को बार बार परिभाषित करने की उनकी तडप ने उनसे जो इनोवेशन करवाए वे अद्भुत रहे हैं. साम्यवाद और अस्तित्ववाद के दर्शन की तरफ उनका झुकाव उन्हें एक नास्तिक और व्यावहारिक जमीन देता है जिस पर खड़े होकर वे भारतीयों की तरह किसी मिथकीय कल्पना लोक को नहीं बुनते बल्कि गरीबी, दमन, शोषण और नए समाज के निर्माण की सच्चाइयों से न्याय करने वाले सिनेमा की नींव रखते हैं. इसीलिये उनका सिनेमा लोगों की जिन्दगी को इतना प्रभावित करता है.

भारत में सिनेमा का कोई स्पष्ट दर्शन है? क्या भारतीय साहित्य और सिनेमा के पास मार्क्स या सार्त्र की तरह अपना कोई दार्शनिक हैं जो नये युग का सवेरा ला रहा हो? क्या हमारे सिनेमा का कोई स्पष्ट सा प्रस्थान बिंदु है और उसकी कोई स्पष्ट या अस्पष्ट सी ही सही कोई घोषित मंजिल है? ऐसे देश में जहां 800 “मातृभाषाएं” और 16 स्वीकृत भाषाएँ और उनकी अपनी लिपियाँ और समृद्ध साहित्य हों, जहां आपस में लड़ रहे भगवान और मिथक हों, जहां कोई लिखित इतिहास या इतिहास बोध तक न, जिस देश का समाज एक ही गली मोहल्ले में वर्ण और जाति में विभाजित है, जहां एक मुद्दे पर लोग बैठकर एकसाथ बात नहीं कर सकते और किसी एक निर्णय तक नहीं पहुँच सकते – वहां साहित्य या सिनेमा का कोइ साझा प्रस्थान बिंदु या लक्ष्य हो सकता है? यह प्रश्न बहुत बड़ा है जिसे सिनेमा की बहस में लाना इसलिए जरुरी है कि आम आदमी सिनेमा के रास्ते से इस बड़े प्रश्न को समझने में आसानी महसूस कर सकता है. वैसे यह एक जटिल समाजशास्त्रीय प्रश्न है. लेकिन आइये इसे सिनेमा के साथ रखकर देखते हैं.

यूरोप या अमेरिका में सिनेमा ने जिस प्रष्ठभूमि में स्वयं को विकसित किया और जिस तरह से समाज निर्माण की चुनौतियों को उत्तर दिया है वैसा भारतीय सिनेमा कभी नहीं कर पाया है. एक उल्लेखनीय उदाहरण की चर्चा की जा सकती है. महबूब खान की फिल्म “औरत” जो 1940 में आई थी और यही फिल्म मदर इंडिया का चोला ओढ़कर फिर 1957 में प्रगट हुई. दोनों की कथावस्तु और नैतिकता के आग्रह एकसमान हैं एक शोषित और असुरक्षित स्त्री के भय सहित एक विद्रोही युवा द्वारा समाज के निर्मम जाल से बाहर निकलने के लिए ढूंढा गया मार्ग एक ही है. दोनों फिल्मों में अबला स्त्री का एक बच्चा डाकू बन जाता है और खूनखराबे पर उतर आता है. अब यहाँ ताज्जुब की बात ये है कि ये दोनों फिल्मे आजादी के क्षण के बहुत करीब बैठी हैं, एक आजादी से सात साल पहले है और दूसरी आजादी से दस साल बाद बनी है. ये दोनों काल बिंदु उस दौर के हैं जबकि गांधी की अहिंसक क्रान्ति या तो परवान चढ़ रही थी या फिर जिसकी याददाश्त समाज में जिन्दा बनी हुई थी. आजादी के पहले की छटपटाहट और बगावत में गरम दल से जैसी उम्मीद की जाती थी वैसी उम्मीद को उस डाकू बन गए बेटे में साकार होते हुए देखना शायद उस समय की मांग थी. लेकिन आजादी के बाद उसी कथानक पर उसी चरित्र में उसी डाकू को उसी सुखिलाला के खिलाफ फिर से खडा करना क्या दर्शाता है? यह बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है. आइये इस प्रश्न के जरिये भारतीय सिनेमा सहित भारतीय समाज की मौलिक समस्या को समझने की कोशिश करते हैं.

क्या महबूब खान इस बात के प्रति आश्वस्त नहीं हैं कि एक नए जन्मे लोकतंत्र में ‘प्रतिक्रियात्मक व्यक्तिगत विद्रोह’ की बजाय ‘सुविचारित सामूहिक क्रान्ति’ की संभावना बन सकती है? एक गरीब और शायद निचली जाति का किसान (वैसे अधिकाँश किसान, माली, बढई, यादव, अहीर यानी शुद्र ही होते हैं) जो गरीबी और भेदभाव से जूझते हुए सुखी लाला के रूप में जाति व्यवस्था से जूझ रहा है. उसका हारकर पलायन कर जाना और उसके बेटे का हथियार उठा लेना समझ में आता है. माना जा सकता है कि उस समय भारतीय बनिए (सुखी लाला) और ग्लोबल बनिये (अंग्रेज सत्ता) इतने शक्तिशाली है कि उनके विरुद्ध सामूहिक विद्रोह को संगठित करने की संभावना कम है. लकिन आजादी के दस साल बाद भी वही फिल्मकार उसी समस्या पर विचार करते हुए उसी विवशता से फिर टकरा रहा है, उसका बिरजू फिर से अकेला बंदूक उठा रहा है. क्या इसमें फिल्मकार की हताशा साफ़ नहीं झलक रही है? क्या वह चीख चीख कर नहीं कह रहा है कि आजाद और नए जन्मे लोकतंत्र में भी इस समाज के शोषित वर्ग में संगठित होकर कुछ कर पाने की प्रेरणा नहीं है. ये निराशा बहुत उभरकर सामने आती है और इसके प्रमाण हमें बाद के दशकों में देशभर में डाकुओं और डकैत गिरोहों के उभार के रूप में देखने को मिलते हैं, जो असल में जाति व्यवस्था पर आधारित शोषण और दमन के खिलाफ खड़े हुए थे. महबूब खान की निराशा वाकई इस समाज की रूह पर अभी भी चिपकी हुई है. ये बीमारी इतनी गहरी है कि डाकुओं के जीवन पर बनी फिल्मों में भी डाकू और डकैती को पैदा करने वाले मूल कारण – जाति व्यवस्था – को बड़ी सफाई से गायब कर दिया जाता है और इसे गरीब अमीर के बीच वर्ग संघर्ष बनाकर पेश किया जाता है. लेकिन गौर से देखिये तो समझ में आता है कि यह वर्ग संघर्ष नहीं बल्कि वर्ण संघर्ष है जिसे इसकी नग्नता में देखने और दिखाने का साहस आज तब हमारे सिनेमा में नहीं जन्मा है.

महबूब खान या कोई अन्य मुख्य धारा का फिल्मकार एक नए जन्मे लोकतंत्र को इमानदार लोकतांत्रिक खुराक क्यों नहीं दे पा रहा है? हमारा फिल्मकार समाज की मूलभूत समस्या को सामने क्यों नहीं ला रहा है? वह औरत के बलात्कार को या आदमी की बंधुआ मजदूरी को गरीब के बलात्कार या गरीब की मजदूरी की तरह ही क्यों दिखाता है? वह ठाकुर की जाति बताता है लेकिन बलत्कृत औरत या बंधुआ मजदुर की जाति क्यों नहीं बताता है? इसका ठीक उलटा हमारा आज का मीडिया करता है वह बलत्कृत स्त्री की जाति जरुर बताता है लेकिन बलात्कारी की जाति नहीं बताता. आज का मीडिया हमारी पुरानी सिनेमा की मजबूरी को आज भी अपने सर पर लिए घूम रहा है. अब आज का सिनेमा क्या कर रहा है ये बात और भी ज्यादा मजेदार है. आज का हमारा सिनेमा ग्लोबल होने की खुमारी में फंस गया है. घर की दीवारों की दरारें वहीं की वहीं हैं लेकिन उसपर इटालियन मार्बल चढाकर उस देखने के लिए फिरंगियों और अप्रवासी भारतीयों को निमन्त्रण भेजा जा रहा है. पिछले दशकों की बड़ी हिट्स देखिये परदेस, दिल तो पागल है या कुछ कुछ होता है, ने अप्रवासी भारतीयों के बाजार को ध्यान में रखकर जो सौंदर्यशास्त्र या अर्थशास्त्र बुना है वह अपने आप में बहुत कुछ बताता है. देश को छोड़ चुके और आत्मग्लानि से भरे अप्रवासियों में अपनी मातृभूमि या संस्कृति के प्रति जो अतिरंजित और अंधा मोह होता है उस मोह को भुनाने के लिए सिनेमा ने बहुत सारे नए प्रयोग किये गए हैं. परदेस की महिमा हो या दिल तो पागल है की करिश्मा हो या अन्य किसी भी फिल्म की कोई नायिका हो उनकी मजबूरियां ठीक वहीं खड़ी हैं जहां महबूब खान की औरत या मदर इंडिया 1940 या 1957 में खड़ी थी. इसी तरह गरीबी और गुलामी से भिड रहे आज के गरीब नायक हैं जो बिरजू की तरह लाचार खड़े हैं. सारी महिमायें और करिश्मे कम कपड़ों में डांस और मौज मस्ती की चमक से सजाये जाते हैं और भीतर ही भीतर कौमार्य का अखंड संकल्प और करवा चौथ का व्रत भी निभाते चलते हैं. रूढ़ीवाद और प्रगति की सम्मिलित अवतार इन महिमाओं और करिश्माओं का घुंघट आज भी उठा दें तो वहां महबूब खान की औरत और मदर इंडिया ही नजर आयेंगी.

अब सवाल ये है कि जाति व्यवस्था द्वारा किये जा रहे दलन और पित्रसत्ता द्वारा किये जा रहे दमन को आज तक उसके नंगे रूप में सामने क्यों नहीं लाया जा सका है? क्या यह एक स्वाभाविक सी स्थिति है या यह सोच समझकर बनाई गयी स्थिति है? भारत का सिनेमा किस दर्शन को मानकर वर्ण सत्ता और पितृ सत्ता को बाइज्जत बरी कर रहा है? क्या आज के मार्क्सवाद पर उसकी जिम्मेदारी डाली जाए जो वर्ण संघर्ष की बजाय वर्ग संघर्ष की बात करता है? थोड़ी देर के लिए यह तर्क मान भी लें, लेकिन पिछले हजार साल में जिस तरह से साहित्य रचा गया है या पुराण रचे गये हैं उसकी जिम्मेदारी मार्क्स पर कैसे डालेंगे? क्या यह सच नहीं है कि जिस तरह भारत के द्विज साहित्यकारों ने वर्ण के प्रश्न से बचने के लिए सीधे वर्ग की बहस में छलांग लगाईं थी ठीक वही काम हमारे सिनेमा ने भी किया है? अब गौर करने की बात ये है कि सिनेमा या साहित्य की चर्चा से वर्ण संघर्ष को सिरे से गायब करने वाले ये लोग कौन हैं और इनकी आस्था किस दर्शन या परम्परा में है?

आप गौर से देखिये ये सब सवर्ण और द्विज लेखक या फिल्मकार हैं. इनकी आस्था उसी पुरुषवादी, सामंती और छुआछूत से भरे धर्म में है जिसने कुछ महाकाव्यों और उनके नायकों को एकमात्र सुपरस्टार बनाकर उनकी सामंती और अंधविश्वास भरी कथाओं को एकमात्र उपलब्ध साहित्य या नाटक/नौटंकी बना छोड़ा है. मिथकों पर आधारित कथाओं का ये मंचन ये रामलीलाएं और ये पुराण कथाएं ही जिस समाज के सार्वजनिक विमर्श का एकमात्र स्त्रोत, मार्ग और गंतव्य हों – वो समाज किस बदलाव की कल्पना कर सकता है? वो समाज अपने साहित्य, नाटक या सिनेमा की भाषा या शिल्प में किस तरह के इनोवेशन कर सकता है? और उसके साहित्य या सिनेमा के नायक अगर मिथकीय नायकों के सम्मोहन में पहले खुद फंसकर बाद में दूसरों को भी सम्मोहित करके सुपर स्टार की नयी श्रेणी ही निर्मित कर दें तो इसमें आश्चर्य कैसा? ये सुपर स्टार समाज के उस दमित मन का एकमात्र सहारा है जो न तो अपनी समस्या को नाम दे पाता है न समाधान खोज पाता है. इस भीड़ में करोड़ों दमित मन हैं जो इतने लाचार हैं कि वे आपस में बात तक नहीं कर पाते. हर जाति हर वर्ण हर समुदाय किसी के दुसरे लिए नीच है और कोई उसके लिए नीच है. इस ‘ग्रेडेड इनिक्वालिटी’ में उनमे आपस में कोई संवाद नहीं और सामूहिक विद्रोह की भाषा में या संगठित क्रांति की भाषा में कभी नहीं सोचता बल्कि ये अकेला मन अपनी व्यक्तिगत कुंठा के उपचार का प्रक्षेपण एक सुपर स्टार की छवि में करता है. चूँकि वो अपनी समस्या और उसके संभावित समाधान की व्याख्या नहीं कर पाता इसीलिये वह अपने नायक को भी सब व्याख्याओं से बचाकर चलता है और इसीलिये नायक के बारे में किसी तरह का तर्क और विश्लेषण बर्दाश्त नहीं करता.

असल में सुपर स्टार की कल्पना ही समाज की दुश्मन है. एक भयानक रूप से आत्ममुग्ध, स्टाइलिश, सामाजिक सरोकारों से एकदम कटा हुआ नायक जो बीमारी के गलत निदान सहित गलत इलाज की वकालत करता है – वही भारतीय फिल्मों का स्टार होता है. उसे न जिन्दगी की हकीकतों का पता है न समाज के असल दर्द का कोई अनुमान है. न सिर्फ व्यक्तिगत जीवन में वह किसी भी मुद्दे पर कोई स्टेंड नहीं लेता बल्कि अपनी फिल्मों में भी वह अपनी इसी योग्यता को बढाता जाता है और शिखर पर पहुंचकर पूरी कौम और समाज को असल मुद्दों से दूर एक कल्पना लोक में ले जाकर भटका देता है. बहुत गहराई से देखा जाए तो समाज में जाति व्यवस्था और सामन्ती पुरुषसत्ता को जो मनोविज्ञान बनाकर रखता है वही मनोविज्ञान सुपर स्टार भी पैदा करता है.

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 Sanjay Jothe, Lead India Fellow, M.A.Development Studies, (I.D.S. University of Sussex U.K.) PhD. Scholar, Tata Institute of Social Sciences (TISS), Mumbai, India.