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श्रद्धांजलि शब्द-संस्मरण – ओम प्रकाश वाल्मीकि जी को समर्पित
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श्रद्धांजलि शब्द-संस्मरण – ओम प्रकाश वाल्मीकि जी को समर्पित

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कैलाश वानखेड़े

लेखक, कहानीकार, कवि एवं दलित चिंतक ओम प्रकाश वाल्मीकि जी के निधन पर लेखक कैलाश वानखेड़े द्वारा संकलित श्रद्धांजलि सन्देश जो कि फेसबुक पर लोगों ने वाल्मीकि जी को याद करते हुए लिखे.

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~

मेरे पिताजी का देहांत 1 मार्च 1983 को हो गया था. मेरा जन्म 01-03-1973 का है, हिसांब लगा लें कि मेरी उम्र उस समय कितनी रही होगी. पिता के प्यार का कोना खाली ही रहा. जब पिता जिंदा थे, तो मरने से एक पहले से चार साल तक वे पागल रहे. दलित साहित्य के गौरव ओमप्रकाश वाल्मीकि जी का मेरे लिए साहित्यिक महत्व तो है ही, लेकिन उनका मेरे जीवन में आना, पिता के आने के सामान था. वे अब इस दुनिया में नहीं रहे, मुझे विश्वास नहीं हो रहा है. सुबह से अब तक बार-बार उनकी याद आ रही है. उनके साथ बिताए पल याद कर आंखें गिली हो जाती हैं. जो मेरे मन-मस्तिष्क में बीत रहा है, उसे यहां लिखने के अलावा किसी को कह भी नहीं पाता हूं.

~ Kailash Chand Chouhan

हर शाम शिवबाबू मिश्र जी sms से वाल्मीकि जी की खबर देते थे और हर बार मैं धड़कते दिल से वह sms खोलता था, आज मेरा डर जीत गया। अलविदा वाल्मीकि जी ! आप न होंगे आपकी कहानियाँ और कविताएँ हमें सही रास्ते खोजने की समझ देंगे।

अलविदा ! अलविदा !! अलविदा !!!

~ पल्लव 

अभी-अभी पता चला, ओम प्रकाश वाल्मीकि नहीं रहे। मैं जब जबलपुर में नौकरी कर रहा था तब उनसे कई बार मुलाक़ात हुई। स्थानीय साहित्यकारों से उनका संपर्क नहीं के बराबर था और मैं ही उनके यहाँ जाकर मिल आता था। वे हिन्दी साहित्य-संसार से बहुत दुखी रहा करते थे और मैं उनके दुख में शामिल रहा करता था। मैं उन्हें तभी से बहुत बड़ा साहित्यकार मानता था और उनकी सभी किताबें पढ़ रखी थीं। वे एक पत्रिका से भी जुड़े हुए थे और मुझे बड़े प्रेम से पत्रिका के अंक दिया करते थे। मेरे रहते ही उनका तबादला देहरादून हो गया था। बाद में वहीं से उन्हें, मेरे विचार से, पर्याप्त मान्यता मिलती चली गयी और उन्हें सिर्फ ‘दलित साहित्यकार’ नहीं बल्कि हिन्दी साहित्यकार माना जाने लगा। उनकी स्मृति को शतशः नमन।

~ Ajit Harshe

…… सिर्फ दलित साहित्यकार होने में भी कोई बुरे नहीं है .दलित साहित्य हाशिये का साहित्य नहीं है .बहुसंख्यक जनता का दुःख है इसमें .सच तो यह है दलित साहित्य ही मुख्यधारा है .सत्ता की मान्यता सबकुछ नहीं है .अल्जीरिया जब गुलाम था श्वेतो का ,अश्वेत साहित्य ही मुख्य साहित्य था और सरकारी मान्यता वाला साहित्य नकली.बहरहाल वाल्मीकि सर का जाना दुखद है क्यूंकि उनसे और भी लिखने की उम्मीद थी।

~ Faqir Jay

उनके लेखन का प्रशंसक शुरु से रहा हूँ, उनकी वैचारिक संघर्षशीलता का भी….
उनके साथ किसी तरह की व्यक्तिगत निकटता का दावा नहीं कर सकता, बस दो-चार मुलाकातें, लेकिन कुछ ऐसा सुलझाव और आकर्षण था ओमप्रकाश वाल्मीकि में कि मन समझ नहीं पा रहा कि क्या कहे, कैसे कहे… — feeling sad.

~ Purushottam Agrawal

वाल्मीकि सर, आपसे अपनी चंद मुलाकातों से नहीं
आपकी स्मृति मेरे पुराने अल्हड दिनों से वाबस्ता है
जिनमे, मैंने
आपकी पंजाबी भाषा में अनुदित आत्मकथा
‘जूठ’ को जिया था
और तब कैसे मुझसे
अपने आप ही
इक खतरनाक अनुशासन छूट हो गया था
अन्दर से जैसे मैं बहुत सध गया था

और अपना सच भी तो यही था/है
कि अपने समाज के हस्बे हिसाब
शब्द केवल हर्फ़ नहीं होते
वो गोली भी होते हैं
अंगार भी
वो सैलाब भी होते हैं
पतवार भी
ये आन्दोलन के बीज तो हवाओं पर भी उग सकते हैं
और इनकी जड़ें
मिटटी को तरसा के
खुद, तना, पत्ते, फूल, फल बनने की
ज़िम्मेदारी उठा सकती है

लगभाग डेढ़ बरस पहले
जब दीनामणि ‘इनसाइट’ के दफ्तर आके
‘खेत ठाकुर का अपना क्या रे’ गीत की
खुद भी और मुझसे भी रिहर्सल करवा रहा था, तब
वही ताक़त मैं इस गीत को गाते हुए
जी रहा था !!

वाल्मीकि सर, आप ज़हन में हमेशा रहोगे
और ताक़त बन के रहोगे
मगर ज़हन में असरदराज़
भावनाओं के कोने
आपको बहुत टूट टूट कर याद करेंगे, सर !!!

~ Gurinder Azad

बहुत दुखद है ,ओमप्रकाश बाल्मीकि का जाना |यह कमी पूरी न हो पाएगी किन्तु वे अपनी यथार्थ और सशक्त रचनाओ के साथ सदा हम सबके दिलो में रहेगे |

~ Lalajee Nirmal

ओम प्रकाश बाल्मीकि के लेखन के माध्यम जाति के दंश को जब पहली बार शब्द के रूप में ढलते हुये देखा था तो डॉ अम्बेडकर के समानता के सपने को सच में बदलने की एक आस जगी थी। ऐसा लगा था जैसे उन्होंने तथाकथित “महान संस्कृतिओ के देश भारत ” के लोगों को उनके ही सामाजिक संस्कार के चरित्र का आईना दिखा दिया था। हार्दिक श्रद्धांजलि !!!!!!!!!!!!!!

~ Arun Khote

‘सदियों का संताप’
सहते-सहते
और इंसान को इंसान समझने की
अनथक लड़ाई लड़ते-लड़ते
देह थक गई आखिर
मगर विचारों और
संघर्षों का कारवां
नहीं रुकेगा कभी…

ओम प्रकाश वाल्‍मीकि जी को
सादर श्रद्धांजलि…

~ प्रेमचंद गाँधी

अक्सर यह खबर मिलती रहती थी कि वाल्मीकि जी की हालत नाजुक है। आज यह दुखद खबर मिली कि ओम प्रकाश वाल्मीकि जी नहीं रहे। थोड़े देर के लिए सन्न रह गया। वाल्मीकि जी का हिंदी साहित्य में यह अवदान महत्वपूर्ण है कि उन्होंने अपने लेखन से दलित लेखकों में स्वाभिमान का संचार करते हुए दलित लेखन की धारा को एक नया मोड़ दिया। बिना किसी भटकाव के वे यह काम आजीवन करते रहे।

वाल्मीकि जी का जन्म 30 जून 1950 को उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के बरला में हुआ। इन्होने कविता, कहानी के अतिरिक्त आलोचना के क्षेत्र में भी काम किये. वाल्मीकि जी की आत्मकथा ‘जूठन’ को पाठकों का असीम प्यार मिला.

उनकी प्रमुख कृतियाँ इस तरह हैं।

सदियों का संताप (1989), बस्स, बहुत हो चुका (1997), अब और नहीं (2009) (तीनों कविता-संग्रह)।

विविध- जूठन (1997, आत्मकथा), सलाम (2000)¸ घुसपैठिए (2004) (दोनों कहानी-संग्रह), दलित साहित्य का सौंदर्य-शास्त्र (2001, आलोचना), सफ़ाई देवता (2009, वाल्मीकि समाज का इतिहास) ।

वाल्मीकि जी को वर्ष 1993 में डॉ0 अम्बेडकर सम्मान, वर्ष 1995 में परिवेश सम्मान, और वर्ष 2008-2009 में उत्तर प्रदेश सरकार का साहित्यभूषण पुरस्कार प्रदान किया गया।

वाल्मीकि जी की एक कविता ‘सदियों का संताप’ के साथ उनको नमन एवं श्रद्धांजलि.

~ संतोष चतुर्वेदी

आज ओमप्रकाश बाल्मीकि जी के न रहने पर उनसे विवाद से लेकर सवाद फिर आत्मीयता तक का सिलसिला याद आ गया .बात एक दशक से भी अधिक पुरानी है .ओम प्रकाश बाल्मीकि ने प्रेमचंद को सवालों के घेरे में खड़ा करते हुए ‘समकालीन जनमत’ में एक लेख लिखा था .मैंने तुरंत अगले ही अंक में इसका तीखा प्रतिवाद किया था .फिर कई अन्य लोगों के मत भी तीखे वाद विवाद के रूप में इस बहस में शामिल हुए .सुखद आश्चर्य तब हुआ जब इस बहस के कुछ ही समय बाद बाल्मीकि जी का का फोन आया कि ‘”मैं लखनऊ में हूँ ,कैसे मुलाकात होगी ?” …इसके बाद वे मेरे कार्यालय आये ,मैंने मुद्राराक्षस जी को सूचना दे दी और हम लोगों की लम्बी बातचीत उस दिन हुयी .बाद में उनकी सहृदयता का परिचय तब और भी मिला जब देहरादून लौटकर उन्होंने आत्मीयता भरा एक पोस्टकार्ड लिखा और इस मुलाकात को यादगार बताते हुए पारस्परिक संवाद को और भी आत्मीय बनाने की उम्मीद व्यक्त की थी . इसके बाद वे जब भी लखनऊ आये हम लोग जरूर मिले . ऐसे संवादधर्मी जनतांत्रिक साथी का असमय जाना कहीं मन को गहरे सालता है . वे बार बार याद आ रहे हैं …..नमन.

~ Virendra Yadav

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राजेन्द्र यादव, बिज्जी और ओम प्रकाश वाल्मीकि – साहित्य की दुनिया की बेरहम मेरिटोक्रेसी के बीच अन्याय को उसके हर रूप में हमारी आँखों और चेतना से ओझल न होने देने वाले, न्याय को उस दुनिया में सबसे बड़ा प्रश्न बनाने वाले तीन लेखक थोड़े से दिनों में एक साथ चले गए हैं. पर यह उनकी सबसे बड़ी विरासत है कि इस उत्तर-सब कुछ दौर में भी न्याय अब एक पूर्व-प्रश्न है. सलाम!

respected sir dubai mai raat ke 2:20 hue hai mai security ki job krta hon aaj mobile par net khola too aapke bare mai par kr aankhe bhar aai smaj ke liye aap ji ne apne aap koo smrpit kr diya aapke pab shoo kr nmn krta hoo …..

~ dharamveer.nahar (dubai)

[प्रतिलिपि में प्रकाशित लेखकों में ओमप्रकाश वाल्मीकि एकमात्र लेखक हैं जिनके पेज पर सिर्फ पाठक नहीं एक समाज लेखक से संवाद कर रहा है. कभी नेरुदा ने कहा था हमारे पास सिर्फ कुछ पाठक हैं, समाज नहीं. दलित लेखन ने हिन्दी साहित्य में समाज की वापसी की है तो उसका बहुत बड़ा श्रेय ‘जूठन’ जैसी किताब को है. सलाम, ‘जूठन’ के लेखक को आखिरी नहीं, एक और सलाम!]

~ Giriraj Kiradoo

तीन साल पहले वाल्मीकिजी की दस कहानियाँ बी ए फाइनल एयर के बच्चोँ को पढा रही थी. इन कहानियोँ ने दलित साहित्य के प्रति मेरी सारी पूर्व धारणाओँ को बदल दिया था. बिना चीख-पुकार मचाये बहुत शालीन, सयंत तरीके से अपनी बात कहना जो हर सहृदय तक पहुंच जाती है. कई बार बात हुई उनसे. हर तरह के लाग-लपेट से दूर बहुत सादे और विनम्र. मेरी मेटी माही स्कूल में दलित साहित्य और उनके विषय में पढकर मुझे बता रही थी. जब मैँने वाल्मीकिजी से उसकी बात कराई, माही बहुत खुश हुई. स्कूल में जाकर सबको बताया. उसके क्लास के दूसरे बच्चे भी उनसे बात करना चाहते थे. वो तो रह ही गया…

वाल्मीकीजी जैसे व्यक्ति एक सोच होते हैं जो कभी खत्म नहीं हो सकती. आना-जाना तो लगा रहता है, मगर विदाई की बेला आंखेँ नम हो ही जाती हैँ! वाल्मीकिजी! आप कभी नहीं भुलेंगे!
उनकी पुण्य स्मृति को नमन!

~ Joyshree Roy

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कौशल पंवार और ओम प्रकाश वाल्मीकि जी

ओमप्रकाश जी ऐसी स्थिति में भी देर रात तक पढते थे, जब सब सोते थे वे दलित समाज की हालात के बारे सोचते और कुछ न कुछ लिखते रहते थे, वे आराम नहीं करते थे. कहने के बावजीद भी वे लिएखते रहते थे, आपको मै बताना चाहुंगी कि ओमप्रकाश वाल्मिकी जी जूठन का सैकिंड पार्ट लिख रहे थी और संयोग से एक कापी उन्होने मुझे भी पढने के लिए दी थी जब वे मेरे घर पर रह रहे थे, मुझे थोड़ा गुस्सा और नाराजगी भी जतायी थी कि आप थोड़ा आराम नहीं कर सकते, अगर जल्द ही ठीक हो जाओंगे तो और ज्यादा लिखोगे, आपको अभी बहुत कुछ लिखना है, लेकिन फिर भी उन्होने लिखा और लिखते रहे, शिमला का प्रोजैक्ट भी उन्होने ऐसे ही पूरा किया और जुठन भी लिखना जारी रखा।

~ Panwar Koushal

ओम प्रकाश वाल्मीकि जी को इस तरह याद करूँगी , सोचा न था़। अभी पिछले शनिवार दिनांक 9 नवम्बर 2013 को ही तो मिल कर आई थी । हालाँकि कमजोरी साफ़ नज़र आ रही थी पर उत्साह में कोई कमी न थी। मैंने देहरादून में मैक्स अस्पताल के बाहर से उनके मोबाइल पर फ़ोनकिया । फ़ोन उनकी पत्नी चंदा जी ने उठाया। वे स्वास्थ्य के बारे में बताने लगी तो मैंने कहा कि मैं यहीं हूँ मुझे कहाँ आना है यह बताइए। चंदा जी ने बताया सेकेंड फ्लोर में रूम नं ़ (संभवत:) २२३५ में आ जाइए । हम जैसे ही पहुँचे उनहोंने बताया कि मुझे कक्ष तक आने का रास्ता बताने के लिए वे फ़ोन माँग रहे थे। वे शिकायती अंदाज में मुझसे कह रही थीं और कृशकाय पर उतसाह से भरे हुए वाल्मीकि जी बिस्तर पर लेटे हुए चिर परिचित अंदाज में मुस्कुरा रहे थे। जैसे ही उन्होंने मेरी बेटी और गुड़गाँव वाले भाई भाभी को देखा तो छूटते ही कहा -“आप आईं भी तो उस समय जब मैं आपको घूमा नहीं सकता” उन्हें पता था कि यह मेरी पहली देहरादून यात्रा है। वे दवाई के प्रभाव में थे। पल में साेते पल में जगते। चेतना ने साथ नहीं छाेड़ा था। चंदा जी के पीछे ही पड़ गए कि वे हमें नीचे कैंटीन में ले जाकर चाय पिलाएँ ।

ओम प्रकाश वाल्मीकि यानी चेतना उत्साह और प्रखरता का सम्मिशरण। ओम प्रकाश वाल्मीकि यानी अम्बेडकरी आंदाेलन की हिन्दी पट्टी की उधवृमुखी पताका जाे किसी भी स्थान पर अपनी पूरी प्रखरता के साथ, स्पष्टता के साथ पूरी बेबाक़ पर लगामदार राय रखने वाला समर्पित चिंतक लेखक। ओम प्रकाश वाल्मीकि केवल काग़ज़ ही काले करने का नाम नहीं करते थे वरन ज़मीनी कर्मठता भी अपने भीतर संजोए रखते थे। जबलपुर मध्य प्रदेश में उनके निवास ने वहाँ के दलितो को एक सकारात्मक दिशा प्रदान की थी। वहाँ से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘तीसरा पक्ष’ (सं. देवेश चौधरी) का संपादन उन्हीं के प्रयास का सुफल है। युवजन की ऊर्जा का उन्हें पूरा ख़याल था।

‘जूठन” से अपनी पहचान स्थापित करने वाले ओम प्रकाश वाल्मीकि का जन्म 30 जून1950 को उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फ़र नगर में हुआ था। ‘सदियों के संताप’ से आरंभ उनकी साहित्यिक यात्रा में अनेक पड़ाव आए। ‘ बस्स! बहुत हो चुका’, ‘ अब और नहीं ‘ , शब्द झूठ नहीं बोलते’, प्रतिनिधि कविताएँ उनके काव्य संग्रह हैं। ‘सलाम’, ‘घुसपैठिए’ , ‘छतरी’, ‘ मेरी प्रतिनिधि कहानियाँ’ उनके कहानी संग्रह हैं। आलोचना की दो महत्वपूर्ण किताबें ‘ दलित साहित्य का सौंदर्य शास्त्र ‘, ‘मुख्य धारा और दलित साहित्य’ हैं। ‘ सफ़ाई देवता’ नामक किताब उनके सामाजिक अध्ययन को प्रदर्शित करती है। उनहोंने एक नाटक लिखा जिसका शीर्षक ‘दो चेहरे’ है। चंद्रपुर महाराष्ट्र में उनहोंने मराठी भी सीख ली थी और अर्जुन काले के मराठी काव्य संग्रह का ‘साइरन का शहर’ नामक अनुवाद किया। कांचा इललैया की मशहूर किताब ‘व्हाइ आई एम नाट अ हिंदू’ का हिन्दी अनुवाद ‘ क्यों मैं हिंदू नहीं ‘ के नाम से किया। ‘प्रज्ञा साहित्य’, ‘दलित हस्तक्षेप’, दलित दस्तक’ ‘क़दम’ पत्रिकाओं के अतिथि संपादक की भूमिका का निर्वाह किया। ‘क़दम’ के अतिथि संपादन का उत्तरदायित्व तो उनहोंने अपने कैंसर की बीमारी से जूझते हुए पूर्ण किया।

‘डा़ अम्बेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार ‘, परिवेश सम्मान’, ‘जयशरी सम्मान’, ‘कथाक्रम सम्मान’, ‘ न्यू इंडिया बुक प्राइज़’, ८ वाँ विश्व हिन्दी सम्मेलन सम्मान’ न्यूयार्क, अमेरिका, साहित्य भूषण सम्मान, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ ने उनकी प्रतिभा को सम्मानित किया। फ़िलहाल वे भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में फेलो के रूप में कार्यरत थे।

अभी अभी तो उन्होंने शिमला में एक राष्ट्रीय संगोष्ठी करवाई थी। चंदा जी उनके साथ लगी सारे प्रतिभागियों का आत्मीय स्वागत कर रही थीं। (जब गंगाराम असपताल में उनसे मिलने गई थी तो वे चंदा जी के लिए रो पड़े थे। कह रहे थे ‘मुझे अपनी चिंता नहीं, बस यह सोचकर खराब लगता है कि मेरे बाद इनका कया होगा’ ) मराठी के यशस्वी साहित्यकार अर्जुन डांगले जी भी उपस्थित थे। ओम प्रकाश जी बेहद उत्साहित । दलित और ग़ैर दलित चिंतक साहित्यकार जो ब्राह्मणवाद से परे भारत के संविधान के अनुसार एक नए भारत की रचना करने को उत्सुक थे, ऐसे लोगों के साथ वे संवाद बनाते रहे। कई बार चर्चा गरम भी हुई पर उनहोंने सामंजस्य क़ायम किया।

अभी वे बहुत सारे काम करना चाहते थे। अपनी आत्मकथा का दूसरा भाग लाना चाहते थे। भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में आयोजित संगोष्ठी में सम्मिलित शोध पत्रों को पुस्तक की शक्ल देना बाक़ी था । इतना कुछ करने के बाद भी अभी तो बहुत कुछ बाक़ी था। मैं वाल्मीकि जी से कहकर आई थी ‘ मेरा आपके साथ ‘देहरादून घूमना आप पर उधार है, शीघ्र स्वस्थ होइए फिर और आऊँगी।’ आपके साथ नहीं घूमा हुआ देहरादून मुझे बहुत याद आएगा।
हेमलता महिश्वर

~ Hemlata Mahishwar

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ओम प्रकाश वाल्मीकि जी के साथ हेमलता महिश्वर

ओम प्रकाश वाल्मीकि उस सामाजिक प्रक्रिया के शिखर हैं, जिनके और उन जैसे सैकड़ों साहित्यकारों के आने के बाद दलित साहित्य की किताबें तथाकथित मुख्यधारा के साहित्य से ज्यादा पढ़ी और खरीदी जाने लगी. यूनिवर्सिटीज के सिलेबस में भी उसे जगह देने को मजबूर होना पड़ा.

हाशिए यानी मार्जिन का मेनस्ट्रीम बन जाना इसे ही कहते हैं.

साहित्य अकादमी ने उन्हें सम्मानित न करके खुद पर ब्राह्मणादी और सवर्णपरस्त होने के आरोपों को साबित किया और अपने मुंह पर कालिख पोत ली है. लाज-शरम बेचकर खा गए हैं साहित्य अकादमी वाले. पता नहीं किन-किन दो कौड़ी वालों को बांट दिया. सरकार का पैसा बाप का माल नहीं होता….

इक्कीसवी सदी में हिंदी साहित्य के सबसे सशक्त हस्ताक्षर और एक नया विमर्श खड़ा करने वाले ओम प्रकाश वाल्मीकि जी, आप हमेशा हम सबकी स्मृतियों में रहेंगे.

आपका शानदार और भव्य लेखन सदियों बाद भी लोगों को बताता रहेगा कि “एक थे ओम प्रकाश वाल्मीकि जिन्होंने दलित साहित्य को मुख्य धारा के साहित्य से भी ज्यादा बड़ा पाठक वर्ग और ठाट दिलाई.”

और हां, प्रेमचंद और रेणु के साथ वे हिंदी साहित्य के सुपरस्टार भी हैं. बेहद पॉपुलर, बेहद असरदार. तीनों अलग अलग धाराओं के हैं, पर जन-जन तक पहुंचने और लोगों पर असर छोड़ने के मामले में तीनों में समानता भी है.

ओम प्रकाश वाल्मीकि का साहित्य मुक्ति का आख्यान है. मृत्यु तथा प्रताड़ना के खिलाफ जीवन का उत्सव है.

~ Dilip C Mandal

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पूनम तुषामड़ के काव्य संग्रह के मौके पर ओम प्रकाश वाल्मीकि और अन्य मित्र

अगर मेरी कोई बेटी होती तो पूनम जैसी होती

एक बार फिर से मैं अनाथ हो गई …कल सुबह जैसे ही यह खबर मिली कि मेरे प्रिया लेखक,मेरे मार्गदर्शक और मेरे पिता तुल्य ओमप्रकाश वाल्मीकि जी नहीं रहे तो …अपने आप को सयंत नही रख पाई….और अपनी सब दुआओं के बे असर होने का दुःख और पश्चाताप करते हुए रो पड़ी….ये बिलकुल वैसा ही एहसास था जैसे किसी विदेश मैं रहती संतान को पता लगे कि उसके अभिभावक का

अकस्मात् निधन हो गया है ..और वह सिवाय अपनी विवशता पर रोने के कुछ भी कर पाने में असमर्थ है…जन्म देने वाले पिता का जितना दुःख हुआ उतना ही दुःख वाल्मीकि जी के यूँ अचानक चले जाने का हो रहा है…मैंने सदैव ही उनपर उनके व्यक्तित्व पर उनकी निडर लेखनी पर फक्र किया है…मैंने ही नही मेरे जैसे हजारों युवाओं को उनसे सदैव हिम्मत,सहस और स्वाभिमान से जीने कि प्रेरणा मिली है…मुझे आज हमेशा इस बात का गर्व रहा है और रहेगा कि उन्होंने ने केवल मेरी लेखनी को सराहा ..बल्कि मुझे एक कार्यक्रम मैं अनेक लोगों कि उपस्थिति मैं ये कहा कि”मुझे कोई संतान नही है किन्तु यदि मेरी कोई बेटी होती तो मैं ये दावे से कह सकता हूँ कि वह बिलकुल पूनम जैसी होती …जब वे ये बात कह रहे थे..मेरे पति और बच्चे भी वहाँ उपस्थित थे और मैं हमेशा इस बात पर गर्व करती रही..वाल्मीकि जी ने मुझे साहित्यिक संस्कार दिया …लिखने कि प्रेरणा और प्रोत्साहन दिया..वे मेरे साहित्यिक पिता ही नहीं..गुरु भी थे.

ओमप्रकाश वाल्मीकि जी केवल एक लेखक और चिंतक नही थे बल्कि वे दलित साहित्य कि नीव के मील के वे पत्थर थे जिसने ने जाने कितनो को साहित्य कि सही राह दिखाई.मेरी पुस्तक ‘ माँ मुझे मत दो के लोकार्पण ‘ के पश्चात जब वे मेरी प्रशंशा कर रहे थे तो मैंने उन्हें कहा था”सर जिसने रामायण लिखी उस वाल्मीकि को मैं नही जानती, मैं तो आप को जानती हूँ जिसने जूठन लिखी एक हमारी आत्म कथा,हमारे दलित समाज के जीवन कि सच्ची तस्वीर …जिस आत्मकथा ने सम्पूर्ण सवर्ण समाज कि चूले हिला दी….और दलित समाज के सबसे निचले पायदान पर समझी जाने वाली जाती को आत्म सम्मान से जीने कि प्रेरणा दी.हमारे वाल्मीकि आप है..वे केवल धीमें से मुस्कुराए और इतना ही कहा नही तुम्हारे जैसे बच्चे इस और आगे ले कर जाएंगे..उनकी बेटी कहलाने का सम्मान..हर सम्मान से बड़ा है…कल कुछ भी कहने कि हिम्मत नही जूता पाई…आज अपने को समेत कर जो कुछ साझा कर पा रही हूँ वह न काफी है …वे मेरी प्रेरणा हमेशा थे और हमेशा रहेंगे …मेरी उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि….

~ पूनम तुषामड़

अंबेडकरी साहित्य के हसताकर और दलित -बहुजन चेतना कि साहित्य के निर्माण करनेवाले डॉ. ओमप्रकाश वाल्मीकिजी को उनके दुखद निर्वाण पर शत शत नमन…. वाल्मीकिजी कि कहानियाँ और कविताये पुरे देश के लिए एक सच्चाई का दर्पण हैं।

~ Shiksha Vikas Adhikar

यथास्थिति और सब कुछ गुडी-गुडी या सुहाने के झूठे अहसास के बीच अपनी ताकत से समाज के असहज कर देने वाले यथार्थ से रू-ब-रू कराने वाले के रूप में ओमप्रकाश वाल्मीकि वंचित सामाजिक तबकों की जरूरत बने रहेंगे।

~ Arvind Shesh

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कैलाश वानखेड़े मध्य प्रदेस में सरकारी एडमिनिस्ट्रेटिव महकमे में कार्यरत हैं. दलित मुद्दों पर लिखने वाले कहानीकार हैं और कवि भी. हाल ही में आई उनकी कहानियों की किताब ‘सत्यापन’ खासी चर्चा में रही.

 [Pictures courtesy: the net]